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________________ और विस्मृति लक्ष्य हैं । वहाँ सुखकी संभाल नहीं है, काम्यमें सब कामनाओं समेत अपनेको खो देनेकी चाह है । पहली साधना है, दूसरा समर्पण है। आरंभमें जो संकेतों कहा वही यहाँ स्पष्ट कहें कि आनन्द-हीन साधना उतनी ही निरर्थक है जितना साधना-हीन आनन्द निष्फल है। वह सुंदर कैसा जो शिव भी नहीं है, और शिव तो सुंदर है ही। इस दृष्टिसे मुझे प्रतीत होता है कि सुंदरको फिर शिव-ताका ध्यान रखना होगा और शिवको सत्याभिमुख रहना होगा। शिव सत्यामिमुख है तो वह सुंदर तो है ही। अर्थात् , जीवनमें सौदर्योन्मुख भावनाओंका नैतिक (= शिवमय) वृत्तियोंके विरुद्ध होकर तनिक भी चलनेका अधिकार नहीं है। शुद्ध नैतिक भावनाओको खिमाती हुई, उन्हें कुचलती हुई जो वृत्तियों सुंदरकी लालसामें लहकना चाहती हैं वे कहीं न कहीं विकृत है। सुंदर नीति-विरुद्ध नहीं है । तब यह निश्चय है कि जिसके पीछे वे आवेशमयी वृत्तियाँ लपकना चाहती है वह 'सुंदर' नहीं है । केवल छमाभास है, सुंदरकी मृगतृष्णिका है।। __सामान्य बुद्धिकी अपेक्षासे यह समझा जा सकता है कि शिवको तो हक है कि वह मनोरम न दीखे, पर सुंदरको तो मंगल-साधक होना ही चाहिए । जीवनका संयम-पक्ष किसी तरह भी जीवनानंदके मध्य अनुपस्थित हुआ कि वह आनंद विकारी हो जाता है। __ अपने वर्तमान समाजकी अपेक्षामें देखें तो क्या दीखता है ! स्वभावतः वे लोग जिनका जीवन रंगीन है और रंगीनीका लोलुप है, जिनके जीवनका प्रधान तत्त्व आनंद और उपभोग है, जो स्वयं २५२
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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