SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्य, शिव, सुंदर शिव और सुंदरको आलंबनकी अपेक्षा है । अशिव हो, तभी शिव संभव है । अशिवको पराजित करनेवाला शिव । यही बात सुंदरके साथ है । असुंदर यदि हो ही नहीं तो सुंदर निरर्थक हो जाता है। दोनो बिना द्वित्वके संभव नहीं है । ___ संक्षेपमें हम यों कहे कि सत्य अनिर्वचनीय है। उसपर कोई चर्चा-आख्यान नहीं चल सकता । वह शुद्ध चैतन्य है। वह समप्रकी अंतरात्मा है। और जिनपर बातचीत चलती और चल सकती है, वे है शिव और सुंदर । हमारी प्रवृत्तियोंके व्यक्तिगत लक्ष्य ये ही दो है-शिव और सुंदर। __ सत्य अनंत है, अकल्पनीय है । अतः हम जो कुछ जान सकते, चाह सकते, हो सकते हैं, वह सब एकांगी सत्य है । दूसरी दृष्टिसे वह असत्य भी हो सकता है । सम्पूर्ण सत्य वह नहीं है। इस स्वीकृतिमेंसे व्यक्तिको एक अनिवार्य धर्म प्राप्त होता है। उसको कहो, प्रेम । उसीको फिर अहिंसा भी कहो, विनम्रता भी कहो। यदि मूलमे यह प्रेमकी प्रेरणा नहीं है तो शिव और सुंदरकी समस्त आराधना भ्रांत है । सुंदर और शिवकी प्राप्तिके अर्थ यात्रा करनेकी पहली शर्त यह है कि व्यक्ति प्रेम-धर्ममें दाक्षित हो ले। प्रेम कसौटी है । सुंदर और शिवके प्रत्येक साधकको पहले उसपर कसा जायगा। जो खरा उतरेगा वह खरा है । जो खोटा निकलेगा, वह खोटा है। प्रत्येक मानवी प्रवृत्तिको इस शर्तको पूरा करना होगा । जो करती २४९
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy