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________________ सत्य, शिव, सुंदर 'सत्यं शिवं सुंदरं' यह पद आजकल बहुत लिखा-पढ़ा जाता है । ठीक मालूम नहीं, कौन इसके जनक है। जिनकी वाणीमें यह स्फुरित हुआ वह ऋषि ही होगे। उनकी अखंड साधनाके फल-स्वरूप ही, भावोत्कर्षकी अवस्थामें, यह पद उनकी गिरासे उद्गीर्ण हुआ होगा। लेकिन कौन-सा विस्मय कालांतरमें सस्ता नहीं पड़ जाता ? यही हाल ऋषि-वाक्योंका होता है। किंतु महत्तत्त्वको व्यक्त करनेवाले पदोंको सस्ते ढंगसे नहीं लेना चाहिए। ऐसा करनेसे अहित होगा | आगको जेबमे रक्खे फिरनेमें खैर नहीं है । या तो जो जेबमें रख ली जाती है वह आग ही नहीं है, या फिर उसमें कुछ भी चिनगारी है तो वह जेबमे नहीं ठहरेगी। सबको जलाकर वह चिनगारी ही प्रोज्ज्वल बनी दमक उठेगी। ___ 'सत्यं शिवं सुंदरं' पदका प्रचलन घिसे पैसेकी नाई किया जा रहा है । कुछ नहीं है, तो इस पदको ले बढ़ो । यह अनुचित है। यह असत्य है । अनीतिमूलक है। शब्द कीमती चीज़ है। आरंभमे वे मानवको बड़ी वेदनाकी कीमतमें प्राप्त हुए। एक नये शब्दको बनानेमें जाने मानव-हृदयको कितनी तकलीफ़ झेलनी पड़ी होगी। उसी बहुमूल्य पदार्थको एक परिश्रमी पिताके उड़ाऊ लड़केकी भाँति जहाँ तहॉ असावधानीसे फेंकते चलना ठीक नहीं है । अकृतज्ञ ही ऐसा कर सकता है।
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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