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________________ यह सपनेका स्वर्ग उसके निकट वैसा ही वास्तव होकर रहा जैसा आँखोंसे दीखनेवाला सूरज । सूरजके प्रति उसने जलका तर्पण दिया तो इसी प्रकार अन्य देवताओका समारोप करके उसने उनके प्रति अपनी कृतज्ञताका ज्ञापन किया । देवताओंके नाम बने, मूर्तियाँ बनीं, स्तवन बनें । और यह देवतालोग उसके जीवनके साथ एकाकार होकर, हिल- मिलकर, रहने लगे । इस प्राथमिक ज्ञानके उद्बोधनकी अवस्था में मनुष्यने अपनेको जब विश्वसे अलहदा अनुभव किया तब उसके साथ भाँति-भाँति के रिश्ते भी कायम रक्खे | — तब उसका समस्त ज्ञान अनुभूतिसूचक ही रहा । विशुद्ध बौद्धिक ज्ञान, अर्थात् विज्ञान, बहुत पीछे जाकर उदयमें आया । " देखो नानीने अपने नन्हेंसे बच्चेको चन्दा दिखाते हुए कहा, बेटा, चन्दा मामा ! ' बच्चेने उसे सचमुच ही अपना चन्दा मामा बना लिया । जब जब उसने चाँद देखा, ताली बजाकर, नानीकी उँगली पकड़कर कहा, ' देख नानी, चन्दा मामा ! ' पर जब बच्चा बढ़कर बड़ा हुआ तब चाँद देखकर उसका ताली बजाना ख़त्म हो गया । चन्द्रमा देखकर किसी भी प्रकारके आह्लादकी प्राप्ति उसे नहीं होने लगी । आह्लाद कम हो गया, उत्सुकता भी कम हुई, पर उसकी जगह एक गम्भीर जिज्ञासाका भाव जाग उठा । उस बड़ी उमर पाये हुए आदमीने कहा " चन्दा मामा नहीं है। मामा कहना तो मूर्खता है, निरा बचपन है । लाओ, टेलिस्कोप लगाकर देखें चन्द्रमा क्या है । ' ८ Coughing
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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