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________________ हमने देखा कि चीजें बदलती है; देखा कि वे प्राकृतिक विकासक्रमके अनुसार बदलती है; देखा कि किसी व्यक्तिकी अथवा घटनाकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । और भी देखा कि किसी व्यक्तिके लिए अपने ही ऊपर केंद्रित होने और अपने ही लिए रहनेका अवकाश नहीं है। ( अपने माने हुए) सुखसे चिपटने और दुखसे दूर भागनेकी छुट्टी भी व्यक्तिको नहीं है । विकास जब अपने आपको चरितार्थ कर रहा है तब व्यक्तिके लिए वीचमें अपने सुख-दुख पैदा कर लेना उचित नहीं है। जीवनकी स्वीकृति व्यक्तिका धर्म है, यों चाहे तो क्लेश उपस्थित करके वह अपनेको मार भी सकता है। यह हमने देखा । अब प्रश्न होता है कि व्यक्ति अपनेको संवेदनहीन बनानेकी कोशिश करे, क्या यही यथार्थ है ! अपनी इन्द्रियोंको क्या मार लेना होगा ? अपनी भावनाओंको तपस्याद्वारा कुचल ही देना होगा ! अपने भीतरकी सुन्दर और असुन्दर, ग्राह्य और घृण्य, आनन्दकारी और ग्लानिजनक, 'सु' और 'कु', यह सब विवेक-भावना क्या व्यर्थ है ? अनादि-कालसे हमारे भीतर एक वस्तुको हर्षसे अपनाने और दूसरीको दृढ़तासे वर्जित रखनेकी जो अंतस्थ सहज बुद्धि है, वह क्या व्यर्थ है ! क्या सबसे मुँह मोड़कर काय-क्लेशमे 'स्टॉइक रेजिनेशन' (Stoic resignation) में बन्द हो जाना होगा ? क्या संवेदनहीन, प्रभावहीन बननेकी ही साधना व्यक्तिके लिए सिद्धि होगी ? और ऐसा हुआ है। लोगोने अपनेको कुचलनेमें सिद्धि मानी है। उन्होंने अपनेसे इनकार किया है, दुनियासे इनकार किया है ૨૪૨
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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