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________________ कितना रहस्य है, कितना सार ! उसमें क्या अगाध ज्ञेयता नहीं है ? जाने जाओ, जानें जाओ, फिर भी जाननेको वहाँ बहुत कुछ शेष रह ही जायगा । खुर्दबीनमेंसे उस बिंदी -भर पत्तेको मैने इतना फैला हुआ देखा कि मानों वहीं विश्व हो। उसमें मानों नगर थे, मैदान थे, समन्दर थे । लेकिन वहाँसे आँख हटानेपर क्या मैने नहीं देख लिया कि हरी-सी - बूँद - जितने आकारके उस पत्तेकी सत्ता इस जगत् में इतनी हीन है, इतनी हीन है कि किसी भी गिनती के योग्य नहीं है ! - " फिर भी वह है, और नहीं कहा जा सकता कि अपनेमें वह ' स्वतंत्र सृष्टि नहीं है। वह खंड वैसा ही स्वयं हो सकता है जैसा मैं, अपने स्वयं हूँ । तब मैं कैसे उसके प्रति अविनयी हो सकता हूँ ? I • यहीं भावनाकी आवश्यकता है। कल्पनाने मुझे मेरा स्थान बताया और सबका अपना अपना स्थान बताया । उसने मुझे स्वतंत्रता दी, उसने अपनी ही मर्यादाओंसे मुझे ऊँचा उठाया, उसने मुझे अनंत तक पहुँचने दिया और मेरी सांतताके बन्धनकी जकड़को ढीला कर दिया । 1 , भावना उसी मेरी व्यापकतामें रस प्रवाहित करेगी । उसमें अर्थ डालेगी। जो दूर हैं, उसे पास खींचेगी। भावनासे प्राणोंमें 'उभार आएगा और जिसे कल्पनाने संभव देखा था, भावना उसीको सत्य बनाएगी। 'जो ब्रह्माण्ड में है पिण्डमें भी वह सभी कुछ है । ब्रह्माण्डको छनेकी ओर कल्पना उठी, तो भावना उसी सत्यको पिण्डमे पा लेने की साधिका हुई। | Extensity ( = विस्तृति ) मे नहीं, Intensity २०८
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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