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________________ व्यवसायका सत्य कुछ ले नहीं रहे है। बिना हमें कुछ प्रति-फल दिये जब रुपया चला जाता है, तब हमें बहुत कष्ट होता है। रुपया खो गया, इसके यही माने है कि उसके जानेका प्रतिदान हमने नहीं पाया । जब रुपया गिर जाता है, चोरी चला जाता है, डूब जाता है, तब हमको बड़ी चोट लगती है। एक पैसा भी, बिना प्रतिदानमें हमे कुछ दिये, हमारी जेबसे यदि चला जाय तो उससे हमें दुःख होता है। यो, चाहे हजारों हम उड़ा दें। उस उड़ा देनेमें दरअसल हम उस उड़ानेका आनन्द तो पा रहे होते है। इस भाँति प्रतिफलके बिना कोई व्यय असम्भव है। किन्तु, प्रतिफलके रूपमे और उसके अनुपातमें तर-तमता होती है । और उसी तर-तमताके आधारपर कुछ व्यय अपव्यय और कुछ और व्यय 'इन्वेस्टमेण्ट' हो जाता है। ' ऊपर श्यामका और रामका उदाहरण दिया गया । श्यामने अपने रुपयेमेसे चार आनेका प्रतिफल जान-बूझकर अपनेसे दूर बना लिया। उस प्रतिफल और अपने चार आनेके व्ययके बीचमे उसने कन्दील ' बनाने और उसे बाजारमे जाकर बेचने आदि श्रमके लिए जगह बना छोड़ी। इसीलिए, वह चार आनेका 'इन्वेस्टमेण्ट' कहा गया और श्यामको बुद्धिमान् समझा गया। परिणाम निकला, प्रत्येक खर्च वास्तवमे पूंजी है यदि उस व्ययके प्रतिफलमें कुछ फासला हो और उस फासलेके बीचमें मनुष्यका श्रम हो । इसीको दूसरे शब्दोंमे यह कह सकते हैं कि मनुष्य और उसके व्ययके प्रतिफलके बीचमें आकाक्षाकी सङ्कीर्णता न हो। अपनी तुरन्तकी अभिलाषाको तृप्त करनेके लिए जो व्यय है, वह उतना ही
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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