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________________ व्यवसायका सत्य एक रोज एक भेदने मुझे पकड़ लिया। बात यों हुई। मै एक मित्रके साथ बाज़ार गया था। मित्रने बाजारमें कोई डेढ़ सौ रुपये खर्च किये । सो तो हुआ, लेकिन जब घर आकर उन्होंने अपना हिसाब लिखा और खर्च-खाते सिर्फ पाँच रुपये ही लिखे गये, तब मैंने कहा, 'यह क्या ?' बोले, 'बाकी रुपया खर्च थोड़े हुआ है। वह तो इन्वेस्टमेण्ट है।' इन्वेस्टमेण्ट ! यानी खर्च होकर भी वह खर्च नहीं है। कुछ और है। खर्च और इस दूसरी वस्तुके अन्तरके सम्बन्धमें कुछ तो अर्थकी झलक साधारणतः मेरे मनमें रहा करती है, पर उस वक्त जैसे एक प्रश्न मुझे देखता हुआ सामने खड़ा हो गया। जान पड़ा कि समझना चाहिए कि खर्च तो क्या, और 'इन्वेस्टमेण्ट' क्या? क्या विशेषता होनेसे खर्च खर्च न रहकर यह 'इन्वेस्टमेण्ट' हो जाता है ! उसी भेदको यहाँ समझकर देखना है और उसे तनिक जीवनकी परिभाषामे भी फैलाकर देखेंगे। रुपया कभी जमकर बैठनेके लिए नहीं है। वह प्रवाही है। अगर वह चले नहीं तो निकम्मा है। अपने इस निरन्तर भ्रमणमे वह कहींकहीसे चलता हुआ हमारे पास आता है। हमारे पाससे कही और चला जायगा। जीवन प्रगतिशील है, और रुपयेका गुण भी गतिशीलता है। रुपयेके इस प्रवाही गुणके कारण यह तो असम्भव है कि हम उसे रोक रक्खे । पहले कुछ लोग धनको ज़मीनमे गाड़ देते थे । गड़ा
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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