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________________ २५८ जैनतत्त्वादर्श होवे । अरु जो पशुपाल्यपना करे, तो पशुओं के ऊपर निर्दय न होवे, पशु का कोई अवयव न छेदे । इसी तरे पशुपालकपना करे | काल में न्यूनाधिक प्रथम सौ तरें का वास्ते सौ ही लिखा ५. शिल्प आजीविका है । सो शिल्प सौ तरे का है। मूल शिल्प तो पांच हैं - १. कुम्भार, २. लोहार, ३ . चितारा, ४. बनकर अर्थात् बुननेवाला, ५. नाई । इन पांचों के वीस वीस मेद हैं । यद्यपि इस कभी होवेंगे, परन्तु श्री ऋषभदेवजी ने शिल्प ही प्रजा को सिखलाया था, इस है । जो सांसारिक विद्या है, सो सर्व कोई कर्म में है । शिल्प गुरु के उपदेश से स्वयमेव ही आ जाता है । यह प्रकार का है - १. उत्तम बुद्धि से धन कमाता है, हाथों से कमावे, ३. अधम पगों से मस्तक से बोझा ढो कर कमावे | शिल्प में आता है, I अरु कर्म कर्म भी सामान्य से चार २. मध्यम हैं, कोई कमावे, ४ अधमाधम · ६. सेवा करके आजीविका करे । सो सेवा राजा की, मन्त्री की, सेठ की, सामान्य लोगों की नौकरी, यह चार प्रकार से है। प्रथम तो नौकरी किसी की भी न करनी चाहिये, क्योंकि नौकर परवश हो जाता है । जेकर निर्वाह न होवे, तदा नौकरी भी करे, परन्तु जिस की नौकरी करे, 'उसमें यह कहे हुए गुण होवें, तो उसके वहां नौकर
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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