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________________ जैमतस्वादर्श *आमासु अ पक्कासु अ चिपचमाणासु मंसपेसीसु । सययं चिय उववाओ, भणिओ उनिगोयजीवाणं || [ संबो० स० गा० ६६ ] जो मांस की पेशी - बोटी अर्थ:-- कच्ची तथा अपक्क ऐसी खती हैं, तिस में निरन्तर निगोद के जीव उत्पन्न होते है । इस वास्ते मांस का खाना जो है, सो नरक में जानेबालों को पूरी खरची है, इस लिये बुद्धिमान् पुरुष मांस कदापि न खावे । अथ जिन्होंने यह मांस खाना कथन करा है, तिन के नाम लिखते हैं--- १. मांस खाने के लोभियों ने, २. मर्यादारहितों ने, ३. नास्तिकों ने, ४. थोड़ी बुद्धिवालों ने, ५. खोटे शास्त्रों क्रे बनानेवालों ने, ६. वैरियों ने मांस खाना कहा है । तथा मांसाहारी से अधिक कोई निर्दयी नहीं । तथा मांसाहारी से अधिक कोई नरक की अग्नि का इन्धन नहीं । गन्दगी खा कर जो सूअर अपने शरीर को पुष्ट करता है, सो अच्छा हैं; परन्तु जीव को मार के जो निर्दयी हो कर मांस खाता है, सो अच्छा नहीं है । प्रश्नः - सर्व जीवों का मांस खाना तो सर्व कुशास्त्रों मैं लिख दिया है, परन्तु मनुष्य का मांस खाना तो कहीं * छायाः -- आमासु च पक्कासु च विपच्यमानासु मांसपेशीषु । - सततमेव उपपातो भणितस्तु निगोदजीवानाम् ॥
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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