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________________ जैनतत्त्वादर्श भूत, भविष्यत् वर्तमान इन तीनों कालों को जो जाने सो त्रिकालवित् । ५. "क्षीणाष्टकर्मा"-क्षीणाणि-क्षय हुए हैं आठ ज्ञानावरणीयादि कर्म जिसके सो क्षीणाष्टकर्मा । ६. “परमेष्ठी" परमे पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी-परम-उत्कृष्ट पद में जो रहे सो परमेष्ठी । ७. “अधीश्वरः"-जगत का ईश्वरस्वामी सो अधीश्वर । ८. "शम्भुः"-श-शाश्वत सुख, तिस में जो होवे सो शम्भुः । ६. "स्वयम्भुः" स्वयं आप ही अपनी आत्मा करके तथाभव्यत्वादि सामग्री के परिपक्व होने से, न कि पर के उपदेश से ( यह तिसही भवकी अपेक्षा का कथन है ) जो होवे सो स्वयम्भू । १०. "भगवान"-भग शब्द के चौदह अर्थ हैं । तिनमें से अर्क और योनि ए दो अर्थ वर्ज के शेष बारां अर्थ ग्रहण करने, तिनका नाम कहते हैं:-१. ज्ञानवन्त, २. माहात्म्यवन्त, ३. शाश्वत वैरियों के वैर को उपशमने से यशस्वी, ४. राज्यलक्ष्मी के त्याग से वैराग्यवन्त, ५. मुक्तिवन्त, ६. रूपवन्त, ७. अनन्तबल होने से वीर्यवन्त, ८..तप करने में उत्साहवान होने से प्रयत्नवन्त, ६. इच्छावन्त-संसार सेती जीवों का उद्धार करने में इच्छा वाला, १०. 'चौंतीस अतिशय रूप लक्ष्मी करी विराजमान होने से श्रीमन्त, ११. धर्मवन्त १२. अनेक देवकोटि करी सेव्यमान होने से ऐश्वर्यवन्त-ए बारां अर्थ करी-जो संयुक्त सो भगवान् । ११. "जगत्प्रभु” १२. "तीर्थवरः"-तरिये संसार समुद्र जिस करके सो तीर्थ-प्रवचन का आधार स्वरूप
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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