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________________ प्रथम परिच्छेद १३ - आदि के ऊपर प्रीतिमान होगा । जो प्रीतिमान होगा सो अवश्य उस पदार्थ की लालसा वाला होगा, अरु जो लालसा वाला होगा सो अवश्य उस पदार्थ की अप्राप्ति से दुःखी होगा । वह अर्हन्त परमेश्वर कैसे हो सकता है ? आठवां दूषण "अरति" है -- जिसकी पदार्थों के ऊपर अप्रीति होगी, सो तो आपही अप्रीतिरूप दुःखकरी दुःखी है । सो अर्हन्त भगवन्त कैसे हो सके ? नववां दूषण "भय" है - सो जिसने अपना ही भय दूर नही किया वह अन्त परमेश्वर कैसे होवे ? दशवां दूषण "जुगुप्सा" है— सो मलीन वस्तु को देखके घृणा करनी - नाक चढ़ानी सो परमेश्वर के ज्ञान में सर्ववस्तु का भासन होता है । जो परमेश्वर में जुगुप्सा होवे तो बड़ा दुःख होवे । इस कारण ते जुगुप्सामान अर्हन्त भगवन्त कैसे होवे ? ग्यारवां दूषण "शोक ' है - सो जो आपही शोक वाला है सो परमेश्वर नहीं । वारवां दूषण "काम" है-सो जो आपही विषयी है, स्त्रियों के साथ भोग करता है, तिस विषयाभिलापी को कौन वुद्धिमान पुरुष परमेश्वर मान सकता है ? तेरवां दूषण " मिथ्यात्व" है-सो जो दर्शनमोहकरी लिप्त है सो भगवन्त नहीं । 2 चौदवां दूषण “अज्ञान" है सो जो आपही मूढ है सो अर्हन्त भगवन्त कैसे ?
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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