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________________ प्रथम परिच्छेद १२. "काम"-मन्मथ-स्त्री, पुरुष, नपुंसक इन तीनों का वेदविकार, १३. "मिथ्यात्व"-दर्शन मोह-विपरीत श्रद्धान, १४. "अज्ञान"-मूढपन', १५. "निद्रा"-सोना, १६. "अविरति"प्रत्याख्यान से रहित पना, १७. “राग"-पूर्व सुखों का स्मरण और पूर्व सुख वा तिसके साधन में गृद्धिपना, १८. "द्वेष"पूर्व दुःखों का स्मरण और पूर्व दुःख वा तिसके साधन विषय क्रोध । यह अठारह दूषण जिनमें नहीं सो अर्हन्त भगवन्त परमेश्वर है । इन अठारह दूषण में से एक भी दूषण जिसमें होगा सो कभी भी अर्हन्त भगवंत परमेश्वर नहीं हो सकता। प्रश्न:-दानान्तराय के नष्ट होने से क्या परमेश्वर दान देता है ? अरु लाभांतराय के नष्ट होने अठारह दापो से क्या परमेश्वर को लाभ होता है ? तथा की मीमामा वीर्यन्तराय के नष्ट होने से क्या परमेश्वर शक्ति दिखलाता है ? तथा भोगान्तराय के नष्ट होने से क्या परमेश्वर भोग करता है ? उपभोगान्तराय के नष्ट ... ... ... ...mrwwwwwwran vrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr.mmmmmmmm (४) भोग के माधन मौजूद हो, वैराग्य भी न हो, तो भी जिम कर्म के उदय से जीव भोग्य वस्तुओं को भोग न सके वह “भोगान्तराय" है। (५) उपभोग की सामग्री मौजूद हो, विरति रहित हो तथापि जिस कर्म के उदय से जीव उपर्भाग्य पदार्थों का उपभोग न कर सके वह "उपभोगान्तराय" है।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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