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________________ प्रथम परिच्छेद साहसकारी वर्णन संयुक्त, ३३. * "वर्णपदवाक्यविविक्तता" । वर्णादिकों का विच्छिन्नपना, ३४ "अव्युच्छित्तिः”–विवक्षितार्थ को सम्यक् सिद्धि जहां लग न होवे तहां ताई अव्यवच्छिन्न वचन का प्रमेयपना, ३५ "अखेदित्वम्"-थकेवांथकावट रहित । यह भगवंत के दूसरे वचनातिशय के पैतीस भेद हैं । तीसरा “अपायापगमातिशय"-एतावता उपद्रव निवारक अतिशय है । और चौथा पूजातिशय अर्थात् भगवान् तीन लोक के पूजनीक हैं । इन दोनों अतिशयों के विस्तार रूप चौंतीस अतिशय होते हैं, सो लिखते हैं - १. तीर्थकर भगवान् की देह का रूप और सुगन्ध सर्वोत्कृष्ट और देह रोग रहित तथा पसीना चौतीस और मल करी वर्जित है, २. श्वास अतिशय निःश्वास पद्म-कमल की तरें सुगन्धवाला, ३. रुधिर और मांस गोदुग्धवत् उज्ज्वल, ४. पाहार नीहार की विधि चर्मचतुवाले को नहीं दीखे। ए चार अतिशय जन्म से ही साथ होते हैं । १. एक योजन प्रमाण ही समवसरण का क्षेत्र है, परन्तु तिसमें देवता, मनुष्य, और तिर्यञ्च की कोटाकोटि भी समाय सकती है अर्थात् भीड़ नहीं होती, २. वाणी-भाषा अर्धमागधी देवता, * जिसमें वर्ण, पद तथा वाक्य अलग अलग रहते हैं। ..' ६ जिसका प्रवाह विवचितार्थ को सिद्धि पर्यन्त जारी रहे । + तीर्थकर भगवान् जिस भाषा मे उपदेश देते हैं, उसका नाम अर्धमागधी भाषा है । विशेष स्वरूप के लिये देखो परिशिष्ट न० १-क। , NA
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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