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________________ पंचम परिच्छेद ४४१ का भी विभाग है । यह व्यवहार ब्राह्मण अरु जैनों ने ही नहीं बनाया, किंतु यह अच्छे बुरे कर्मों के उदय से है। यह परस्पर जाति का आहार न खाने का व्यवहार मिश्रदेश में भी था । इस वास्ते ऊंच नीच जाति होती है। तथा आयु कर्म में से नरकायु की प्रकृति पाप में गिनी जाती है, नरक शब्द की व्युत्पत्ति ऐसे है:- नरान् प्रकृष्टपापफलभोगाय गुरुपापकारिणः प्राणिनो नरानित्युपलक्षणत्वात कायंति शब्दयंतीति नरकास्तेष्वायुस्तद्भवप्रायोग्यसकलकर्मप्रकृतिविपाकानुभवकारणं प्राणधारणं यत्तन्नरकायुष्कं तद्विपाकवेद्यकर्मप्रकृतिरपि नरकायुष्कमिति । तथा वेदनीय कर्म की असातावेदनीय पाप प्रकृति में गिनी जाती है । असाता नाम दुःख का है, जिस के उदय से जीव दुःख भोगता है, तिस का नाम असातावेदनीय है। . ___ यह ज्ञानावरणीय पांच, अंतराय पांच, दर्शनावरणीय नव, मोहनीय कच्चीस, नाम कर्म की चौतीस, नाच गोत्र एक, तथा असातावेदनीय एक, सब मिल कर ब्यासी प्रकार से पाप फल भोगते में आता है। .. . .. अथ आश्रवतत्त्व लिखते हैं। मिथ्यात्वादि आश्रयं के हेतु
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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