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________________ जैनतत्त्वादर्श ४३८ जिस के उदय से जात्यादि करके विकल जीव होता है, सो नीचगोत्र जानना । नीचगोत्र उस को कहते हैं, कि जो अधम कैवर्त, चांडालादि शब्दों से उपलक्षित हो। तथाहिः कुलं गूयते संशब्द्यतेऽनेन हीनोऽयमजातिरित्यादि शब्दैरिति गोत्रं कुलं नीचमिति विशेषणाऽन्यथानुपपच्या नीचैर्गोत्रमित्यर्थः । प्रश्नः - यह जो तुम नीच गोत्र के उदय से नीच कुल कहते हो, तीनों के साथ खान पान नहीं करते हो, तिनों की छूत मानते हो, अरु निंदा की समीक्षा जुगुप्सा भी करते हो, यह तुमारी बड़ी अज्ञानता है । क्योंकि मानुषत्व धर्म करके ऊंच नीच सर्व समान हैं, एक सरीखे हाथ पग आदि अवयव हैं, तो फिर एक को ऊंच मानना, तथा एक को नीच मानना, यह केवल ब्राह्मण और जैनियों ने ही बुरी रसम भारत वर्ष में जारी कर रक्खी है। इस बात में क्या मुक्ति का अंग है ? कितनेक भारतवर्षियों को वर्ज के और सर्व द्वीप द्वीपांतर में तथा भारत वर्ष में भी सर्व विलायतादिक में कोई भी ऊंच नीच नहीं गिनते हैं । निवाले प्याले में सब एक हैं । यह केवल तुमारी मूढता अर्थात् अंध परंपरा है, वास्तव में ऊंच नीच कोई भी नहीं । उत्तरः- यह तुमारा कहना बहुत वे समझी का है,
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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