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________________ ४२० जैनतत्त्वादर्श पवन करके उड़ जावे. तिस का नाम अगुरु लघु है. तिस की प्राप्ति होवे, सो अगुरुलघु नाम कर्म । २३. जिस के उदय से प्राणी परको हने.अरु शरीर की आकृति ऐसी होवे, कि जिस के देखने से दूसरों का अभिभव होवे, सो पराघात नामकर्म । २४. जिस के उदय से उच्छासन लब्धि अर्थात् उच्छास लेने की शक्तिआत्मा को होती है, सो उच्छास नामकर्म । २५. जिस के उदय से जीव प्रकारा अरु आतप शरीर को पावे, तिस का नाम आतप नामकर्म । २६. जिस के उदय से जीव, उष्ण प्रकाश रूप उद्योत वाला शरीर पाता है. सो उद्योत नामकर्म । २७. जिस कर्म के उदय से जीव-को विहायोगति [विहाय नाम आकाश का है: तिस में जो गति सो विहायोगति ] एतावता राजहंस सरीखी गति होवे. सो सुविहायोगति नामकर्म । २८. जिस के उदय से जीव के शरीर के अंगोपांगादिकों अर्थात् नसा, जाल, माथे की खोपड़ी के हाड़, आंख, कान के पड़दे. केश, नखादि सर्व शरीर के अवयवों की व्यवस्था होवे. सो निर्माणनामकर्म. यह सूत्रधार के समान है । २६. जिस के उदय से जीवों को त्रस रूप की प्राप्ति होवे, अर्थात् उणादि करके तप्त हुए विवक्षित स्थान से छायादिक में जाना, और दो इन्द्रियादिक पर्याय का फल भोगना, आदि प्राप्त करे सो बस नाम कर्म। ३०. जिस के उदय से जीव वादर अर्थात् स्थूल शरीर वाला होता है. सो बादर नामकर्म । ३१. जिस कर्म के उदय
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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