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________________ ४०० जैनतत्त्वादर्श सिद्ध होती है; परन्तु तुमारे भूतमात्र तत्त्व वादियों के मत में नहीं हो सकती है । कोई एक असाध्य व्याधि इस वास्ते हो जाती है, कि दोषकृत विकार के दूर करने में समर्थ औषधि अरु योग्य वैद्य नहीं मिलता । तब औषधि अरु वैद्य के अभाव से व्याधि वृद्धिमान होकर सकल आयु को उपक्रम करती है, अर्थात् क्षय कर देती है। तथा कोई एक दोषों के उपशम होने से अकस्मात् मर जाता है । अरु कोई एक अति दुष्ट दोषों के होने से भी नहीं मरता है । यह बात तुमारे मत में नहीं हो सकती है । आह चः दोषस्योपशमेऽप्यस्ति, मरणं कस्यचित्पुनः । जीवनं दोषदुष्टत्वेऽप्येतन्न स्याद्भगवन्मते ॥ [नं० सू० टीका-जीव० सि०] हमारे मत में तो जहां लगि आयु है, तहां लगि दोषों करके पीडित भी जीता रहता है, अरु जब आयु क्षय हो जाता है, तव दोषों के विकार विना भी मर जाता है । इस वास्ते देह ज्ञान का निमित्त नहीं है। एक और भी बात है, कि देह जो तुम ज्ञान का कारण मानते हो, सो सहकारी कारण मानते हो ? वा उपादान कारण मानते हो ? जेकर सहकारी कारण मानते हो, तव तो हम भी देह को क्षयोपशम का हेतु होने से कथंचित् विज्ञान का हेतु मानते हैं । जेकर उपादान कारण मानो, तब
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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