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________________ चतुर्थ परिच्छेद ३६५ काल विषयक नहीं हैं । ऐसे ही शेष इन्द्रिय में भी जान लेना । तच कैसे मनोज्ञान को वर्त्तमानार्थ ग्रहण प्रसक्ति होवे ? उक्तं चः अक्षव्यापारमाश्रित्य भवदक्षजमिष्यते ॥ तद्व्यापारो न तत्रेति, कथमक्षभवं भवेत् ॥ [ नं० सू० टीका - जीव० सि० ] अथ अनिंद्रिय रूप से है, सो भी तिस को अचेतन होने से अयुक्त है । अरु केश नखादिक तो मनोज्ञान करके स्फुरत चिद्रूप उपलब्ध नहीं होते हैं । तब कैसे तिन सेती मनोज्ञान होवे ? आह च:--- चेतयंतो न दृश्यंते केशश्मश्रुनखादयः । ततस्तेभ्यो मनोज्ञानं, भवतीत्यतिसाहसम् ॥ [ नं० सू० टीका - जीव० सि० ] जेकर केश, नखादिकों से प्रतिबद्ध मनोज्ञान होवे, तब तो तिनों के उच्छेद हुए मूल से ही मनोज्ञान नही होवेगा । अरु केरा, नखादिकों का उपघात होने से ज्ञान भी उपहत होना चाहिये । परन्तु सो तो होता नहीं, इस वास्ते यह तीसरा पक्ष भी ठीक नहीं । एक और भी बात है, कि मनोज्ञान के सूक्ष्म अर्थ भेतृत्व अरु स्मृतिपाटवादि जो विशेष हैं, सो अन्वयव्यतिरेक
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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