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________________ चतुर्थ परिच्छेद ३६३ गुण दोष नहीं जानता, उतना चिर उस वस्तु में किसी को भी आग्रह नही होता है । तब तो जन्म की आदि में जो शरीर का आग्रह है, सो शरीर परिशीलन के अभ्यास पूर्वक संस्कार का कारण है । इस वास्ते आत्मा का जन्मांतर से आना सिद्ध हुआ । उक्तं चः 1 शरीराग्रहरूपस्य, चेतसः संभवो यदा । जन्मादौ देहिनां दृष्टः किन्न जन्मांतरागतिः ॥ [ नं० सू० टीका-जीव० सि० ] जब आगति ( आगमन) नहीं दीखती है, तब कैसे तिस का अनुमान से बोध होवे ? यह तुमारा कहना कुछ दूषण नहीं। क्योंकि अनुमेय अर्थ विषे प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नही हो सकती है । परस्पर विषय का परिहार करके ही प्रत्यक्ष और अनुमान की प्रवृत्ति वुद्धिमान् मानते हैं । तब यह तुमारा दूषण कैसे है ? आह च: — अनुमेयेऽस्ति नाध्यक्ष -मिति कैवात्र दुष्टता । अध्यक्षस्यानुमानस्य, विषयो विषयो नहि || [ नं० सू० टीका - जीव० सि०] अरु जो चित्र का दृष्टांत तुमने कहा था, सो भी विषम होने से अयुक्त है। क्योंकि चित्र जो है सो अचेतन है, अरु गमन स्वभाव रहित है । परन्तु आत्मा जो है, सो चेतन है
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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