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________________ ३८८ जैनतत्त्वादर्श चैतन्य से विलक्षण है ? अथवा चैतन्य ही है ? जे कर कहो कि विलक्षण है, तब तो शक्तिरूप करके चैतन्य है, ऐसा मत कहो, क्योंकि पट के विद्यमान होने पर पटरूप करके घट नहीं रहता । आह च प्रज्ञाकरगुप्तोऽपिः रूपांतरेण यदि त- तदेवास्तीति मारटीः । चैतन्यादन्यरूपस्य, भावे तद्विद्यते कथम् ॥ 1 · जे कर दूसरा पक्ष मानोगे, तब तो चैतन्य ही वो शक्ति - है, तो फिर क्यों नहीं उपलब्ध होती ? जे कर कहो कि आवृत होने से उपलब्ध नहीं होती तो यह भी ठीक नहीं । क्योंकि आवृति नाम आवरण का है । सो आवरण क्या विवक्षित - विशिष्ट कायाकार परिणाम का अभावरूप है ? अथवा परिणामांतर है ? अथवा भूतों से अतिरिक्त और वस्तु है ? उस में विवक्षित परिणाम का अभाव तो नहीं है । क्योंकि एकान्त तुच्छ रूप होने से विवक्षित परिणाम के अभाव में आवरण करने की शक्ति नहीं है । अन्यथा 5 } 1 अतुच्छ रूप होने से वो भी भावरूप हो जावेगा । अरु जब भावरूप हुआ, तब तो पृथिवी आदि में से अन्यतम हुआ । क्योंकि "पृथिव्यादीन्येव भूतानि तत्त्वम्” इति वचनात् । तथा पृथिवी आदिक जो भूत हैं, सो चैतन्य के व्यंजक हैं, आवरक नहीं | तब उनको आवरकत्व कैसे सिद्ध होवे ? अथ जेकर कहो कि परिणामांतर है, सो भी अयुक्त है । क्योंकि
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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