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________________ ३८६ जैनतत्त्वादर्श अपवाद और अर्थ के वास्ते है । क्योंकि तुमारे तो "न हिंस्यात सर्वा भूतानि” यह जो उत्सर्ग है, सो तो दुर्गति के निषेध के वास्ते है । अरु जो अपवाद हिंसा है, सो देवता, अतिथि और पितरों की प्रीति संपादन के निमित्त है । इस वास्ते परस्पर निरपेक्ष होने से यह उत्सर्ग अपवाद विधि नहीं हो सकती है । तब तुमारा यह हिंसा विधायक अपवाद, अहिंसा का प्रतिपादन करने वाली उत्सर्ग विधि को किसी प्रकार भी बाध नहीं सकता । यदि कहो कि वैदिक हिंसा की जो विधि है, सो भी स्वर्ग का हेतु होने से दुर्गति के निषेधार्थ ही है । सो यह कथन भी अयुक्त है; क्योंकि वैदिक हिंसा स्वर्ग का हेतु नहीं है । यह हम ऊपर अच्छी तरह से लिख आये हैं। तथा वैदिक हिंसा के विना भी स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है । और अपवाद गत्यंतर के अभाव में ही हो सकता है, अन्यथा नहीं | यह बात हम ही नहीं कहते, किन्तु तुमारे व्यास जी भी कहते हैं । तथाहि : # · पूजया विपुलं राज्यमग्निकार्येण संपदः । तपः पापविशुद्धयर्थ, ज्ञानं ध्यानं च मुक्तिदम् ॥ यहां पर अग्निकार्य शब्द वाच्य यागादिविधि को उपायां " तर साध्य संपदा मात्र का हेतु कहने से आचार्य ने उसे सुगति का हेतु नहीं माना । तथा "ज्ञानपाली” आदि श्लोकों
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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