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________________ ३६८ / जैनतत्त्वादर्श आदि की इच्छा वाला, श्वेतवर्ण के, जिस का वायु देवतास्वामी है, बकरे को आलभेत-हिंसेत् अर्थात् मारे । सिद्धांती:-तुमारा यह कथन भी व्यभिचार रूप पिशाच करी ग्रस्त होने से अप्रामाणिक है, क्योंकि भूति जो है, सो अन्य उपाय करके भी साध्यमान हो सकती है। ___ प्रतिवादी:-यज्ञ में जो छागादि मारे जाते हैं, वे मर कर देव गति को प्राप्त होते हैं। यज्ञ करने में यह जीवों पर उपकार है। सिद्धांती:-यह भी तुमारा कहना प्रमाण के अभाव से वचन मात्र ही है, क्योंकि यज्ञमें मारे गये पशुओं में से सद्गति का लाभ होने से मुदित मन हो कर कोई भी पशु पीछे आकर अपने स्वर्ग के सुखों का निरूपण नहीं करता। प्रतिवादीः-हमारे इस कहने में आगम प्रमाण है। यथा औषध्यः पशवो वृक्षा-स्तिर्यचः पक्षिणस्तथा । यज्ञार्थ निधनं प्राप्ताः, प्राप्नुवंत्युच्छ्रितं पुनः ।। [म० स्मृ०, अ० ५ श्लो०४०] भावार्थ:-औषधिये, अजादिक पशु, किंजल्कादि पक्षी, ये यज्ञ में मृत्यु को प्राप्त होकर फिर उछित अर्थात् उच्च गति को प्राप्त होते हैं। सिद्धांती:-यह भी तुमारा कहना ठीक नहीं । तुमारा आगम पौरुषेय अपोरुषेय विकल्पों करके हम आगे खण्डन तिहा
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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