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________________ जैनतत्त्वादर्श . यह तुसारा कहना भी अयुक्त है । क्योंकि जिनमंदिर और जिनप्रतिमा के देखने से, उनके दर्शन से भगवान् के गुणानुराग करके कितनेक भव्य जीवों को वोधि का लाभ होता है । अरु पूजातिशय देखने से मनःप्रसाद होता है, मनःप्रसाद मे समाधि होती है । इसी प्रकार क्रम करके निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है । तथा च भगवान पंचलिंगीकारः-- * पुढवाइयाण जइविहु, होइ विणासो जिणालयाहिं तो। तचिसयावि सुदिहिस्स, नियमो अत्थि अणुकंपा ॥१॥ एाहिंतो बुद्धा, विरया रक्खंति जेण पुढवाई। इत्तो निव्वाणगय , अवाहिया आभवमणंतं ॥२॥ रोगिसिरावेहो इव, मुविज्जकिरिया व सुप्पउत्ता ओ। परिणामसुन्दर चिय, चिठा से वाहजोगेवि ॥३॥ * छायाः पृथिव्यादीनां यद्यपि भवत्येव विनाशो जिनालयादिभ्यः । ' तद्विषयापि सुदृष्टे नियमतोऽस्त्यनुकम्पा ॥१॥ एतेभ्यो वुद्धा विरता रक्षन्ति येन पृथिव्यादीन् । अतो निर्वाणगता अवाधिता आभवमनंतम् ॥२॥ रोगिशिरावेध इव सुवैद्यक्रियेव सुप्रयुक्ता तु । परिणामसुन्दर इव चेष्टा सा बाधायोगेऽपि ॥ ३॥ . [जिनेश्वरसूरिकृत प० लिं०, गा० ५५-६.]
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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