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________________ चतुर्थ परिच्छेद ३५५ तो कृतनाश अरु अकृताभ्यागम दूषण होंगे, अरु बन्ध मोक्ष का भी अभाव होगा, एवं निर्गुण होने से आत्मा ज्ञान शून्य हो जावेगी । इस वास्ते यह सर्व पूर्वोक्त बालप्रलापमात्र है । अव सांख्यमत के मोक्ष का विचार करते हैं, "प्रकृति - पुरुषांतर परिज्ञानात् मुक्तिः" अर्थात् प्रकृति पुरुष से अन्य है, ऐसा जब ज्ञान होता है, तब मुक्ति होती है । यथा शुद्धचैतन्यरूपोऽयं, पुरुषः पुरुषार्थतः । प्रकृत्यंतरमज्ञात्वा, मोहात्संसारमाश्रितः ॥ [ षड्० स०, श्लो० ४३ की वृ० वृ० में संगृहीत ] भावार्थ:- पुरुष जो है, सो परमार्थ से शुद्ध चैतन्यरूप हैं, अपने आपको प्रकृति से एकमेक-अभिन्न समझता है, यही मोह है, इस मोह से ही संसार के आश्रित हो रहा है । अतः सुख दुःख स्वभावरूप प्रकृति को विवेक ज्ञान के द्वारा जब तक अपने से अलग नहीं समझेगा तब तक मुक्ति नहीं । इस वास्ते विवेक ख्यातिरूप केवल ज्ञान के उदय होने से मुक्ति होती है । परन्तु यह भी असत् है, क्योंकि आत्मा एकांत नित्य है, अरु सुखादि जो हैं, सो उत्पाद व्यय स्वभाव वाले हैं । तव तो विरुद्ध धर्म के संसर्ग से आत्मासे प्रकृति का भेद प्रतीत ही है। तो फिर मुक्ति क्यों नहीं ? संसारी पुरुष यही तो विचार नहीं करता, इसी वास्ते उस की मुक्ति नहीं । तव तो तुमारे कहने से कदापि
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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