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________________ चतुर्थ परिच्छेद ३४१ सिद्ध है, इस वास्ते हम को पृथक् पदार्थ मानना ठीक नहीं। २. तया प्रमेय के भेद-१. आत्मा, २. शरीर, ३. इंद्रिय, ४. अर्थ, ५ बुद्धि, ६. मन, ७. प्रवृत्ति, ८. दोष, ६ प्रेत्यभाव, १०. फल, ११. दुःख, १२. अपवर्ग । तहां आत्मा सर्व का देखने वाला अरु भोक्ता है, अरु इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, ज्ञान, इन करके अनुमेय है । सो तो हम ने जीवतत्त्व में ग्रहण किया है । अरु शरीर जो है, लो आत्मा का भोगायतन है, इन्द्रिय भोगों के साधन हैं, अरु इन्द्रियार्थ भोग्य हैं। ये शरीरादिक भी जीवाजीव के ग्रहण से हमने ग्रहण करे हैं। अरु वुद्धि जो है, सो उपयोग रूप ज्ञान विशेष है, सो बुद्धि जीव के ग्रहण ही में आ गई, एतावता जीव तत्त्व में ही ग्रहण होगई। अरु मन सर्व विषय अंतःकरण है, युगपत् ज्ञान का न होना यह मन का लिंग है । तहां द्रव्यमन तो पौद्गलिक है, सो अजीव तत्त्व में ग्रहण किया है । अरु भावमन जो है सो ज्ञानरूप आत्मा का गुण है, सो जीव तत्त्व में ग्रहण किया है । अरु आत्मा की इच्छा का नाम प्रवृत्ति है, सो सुख दुःखों के होने में कारण है, ज्ञान रूप होने से यह जीवतत्व में ग्रहण करी है । आत्मा के जो अध्यवसाय-राग, द्वेष, मोहादि,सो दोष हैं, यह दोष भी जीव के अभिप्राय रूप होने से जीवतत्त्वमें ही ग्रहण किये हैं, इसवास्ते पृथक् पदार्थ नहीं। प्रेत्यभाव-परलोक का सद्भाव होना, सोमी जीवाजीव के बिना और कुछ नहीं है। तथा फल-सुख दुःख का भोगना, सोभी जीव
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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