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________________ चतुर्थ परिच्छेद ३३५ प्रतिवादीः-शरीर के.अभाव से भी ज्ञान इच्छा और प्रयत्न के आश्रय से शरीर को उत्पन्न करके ईश्वर कर्ता हो सकता है। सिद्धान्ती:-यह भी विना विचार ही का तुमारा कहना है। क्योंकि शरीर सम्बन्ध से ही सृष्टि रचने की प्रेरणा होसकती है। शरीर के अभाव होने पर मुक्त आत्मा की तरे तिस का संभव ही नहीं। तथा शरीर के अभाव से ज्ञानादि के आश्रयत्व का भी सम्भव नहीं, क्योंकि इनकी उत्पत्ति में शरीर निमित्त कारण है । अन्यथा मुक्तात्मा को भी तिस की उत्पत्ति होवेगी। तथा विद्यादि प्रभाव को अदृश्यपने में हेतु मानें तो कदाचित् यह दीखना भी चाहिये । क्योंकि विद्यावान् सदा अदृश्य नहीं रहते । पिशाचादिकों की तरे जाति विशेष भी अदृश्य होने में हेतु नहीं। क्योंकि ईश्वर एक है, एक में जाति नहीं होती है, जाति जो होती है, सो अनेक व्यक्तिनिष्ठ होती है । भले ही ईश्वर दृश्य, अथवा अदृश्य होवे, तो भी क्या सत्ता मात्र करके ? वा ज्ञान करके ? वा ज्ञान इच्छा और प्रयत्न करके ? वा तत्पूर्व व्यापार करके ? वा ऐश्वर्य करके, पृथिव्यादिकों का कारण है ? तहां आद्य पक्ष में कुलालादिकों को भी, सत्त्व के अविशेष होने से जगत्कर्तृत्व का अनुषंग होवेगा। दूसरे पक्ष में योगियों को भी जगत् कर्ता को आपत्ति होवेगी । तीसरा पक्ष भी ठीक नहीं, क्योंकि अशरीरी में ज्ञानादि के आश्रयत्व
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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