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________________ ३०० जैनतत्त्वादर्श इस का कुछ उपाय करना चाहिये । ऐसा विचार करके उस ने बृहस्पति सूत्र रचे, तिन सूत्रों से पुण्य, पाप, और स्वर्ग, नरक का अभाव सिद्ध किया । तथा अपनी वहिन को वे सूत्र सुना कर उस का विचार भी बदल दिया । तब तिस की बहिन ने अपने मन में विचार करा, कि यह जो शरीर है, सो तो पांचभौतिक है, अरु इस शरीर से अतिरिक्त आत्मा नाम का कोई पदार्थ है नहीं। तो फिर पुण्य, पाप, नरक, आदि के भय से तथा मूर्ख लोकों की विडंबना के विचार से अपने यौवन को वृथा क्यों खोऊ ? ऐसा विचार करके वह अपने भाई के साथ विषयभोग करने में लिप्त हो गई। जव लोगों को यह बात जान पड़ी, तब लोग निदा करने लगे । इस पर बृहस्पति ने निर्लज्ज हो कर लोगों को नास्तिक मत का उपदेश करना प्रारम्भ कर दिया। जो लोग अत्यंत विषयी अरु अज्ञानी थे, वे सब उस के शिष्य हो गए। कितनेक काल पीछे उन के शिष्यों ने अपने मत को प्रतिष्ठित करने के वास्ते कहा, कि यह जो हमारा मत है, सो देवताओं के गुरु जो बृहस्पति हैं, तिनका चलाया हुआ है, अरु बृहस्पति से अन्य दूसरा कोई बुद्धिमान नहीं है, इस वास्ते हमारा मत सच्चा है । इस बृहस्पति का हमारे चौबीसवें तीर्थकर श्रीमहावीर से पहिले होना प्रमाणसिद्ध है, क्योंकि श्रीमहावीर जी के कथन करे हुए शास्त्रों में चार्वाक मत का निरूपण है । इस प्रकार से चार्वाक मन की उत्पत्ति है ।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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