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________________ चतुर्थ परिच्छेद २९७ क्योंकि प्रत्यक्षादिक विद्यमान के उपलंभक हैं। अरु धर्म जो है, सो कर्त्तव्यतारूप है, तथा कर्त्तव्यता जो है, सो त्रिकाल स्वभाव वालो है । तिस कर्त्तव्यता का ज्ञान नोदना ही उत्पन्न करा सकती है, यही मीमांसकों का अभ्युपगमसिद्धांत है । अब नोदना का व्याख्यान करते हैं । अग्निहोत्र, सर्व जीवों की ग्रहिसा और दानादिक क्रिया के प्रवर्तक-प्रेरक जो वेदों के वचन, सो नोदना है । जैसे- + "अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकाम:" | यह प्रवर्त्तक वेद वचन है, तथा निवर्तक वेद वचन - " न हिस्यात् सर्वा भूतानि तथा न वै हिस्रो भवेत्" । इत्यादि । इन प्रवर्तक और निवर्तक वेद वचनों से प्रेरित हुआ पुरुष जिन द्रव्य, गुणा, कर्मादि के द्वारा हवनादि में प्रवृत्त और उनसे निवृत्त होता है, उस अनुष्ठान से उसके अभीष्ट स्वर्गादि फल की जिस से सिद्धि होती है, उस का नाम धर्म है । इसी प्रकार उक्त वेद वचनों से प्रेरित हुआ भी यदि प्रवृत्त अथवा निवृत्त नहीं होता, तो उस से उस को अनिष्ट नरकादि फल की जिस से प्राप्ति होती है, वह अधर्म है। तात्पर्य कि अभीष्ट फल के देने वाला धर्म और अनिष्ट फल का सम्पादन करने वाला अधर्म है । शावर भाष्य में भी ऐसे ही कहा है* । १ + स्वर्ग की इच्छा रखने वाला अग्निहोत्र करे । * य एव श्रेयस्करः स एव धर्मशब्देनोच्यते । [ अ० १ पा० १ सू० २ का भाष्य ]
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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