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________________ २६४ जैनतत्त्वादर्श अभ्यास करने से भी शुद्धि की तरतमता ही होती है, परम प्रकर्ष नहीं । जो पुरुष कूदने का, छलांग मारने का, अभ्यास करेगा, वो दस हाथ कूद जावेगा, वीस हाथ कूद जावेगा, अधिक से अधिक पचास हाथ कूद जावेगा, परन्तु शत योजन तक अथवा सर्व लोक को कूद के चले जाने का अभ्यास उसे कदापि नहीं हो सकेगा । ऐसे ही प्रात्मा भी अभ्यास के द्वारा अधिक विज्ञ तो हो सकता है किन्तु सर्वज्ञ नहीं हो सकता। प्रश्न:-मनुष्य को सर्वज्ञता मत हो, परन्तु ब्रह्मा, विष्णु, और महेश्वरादि तो सर्वज्ञ हैं, क्योंकि तिन को तो जगत ईश्वर मानता है । अतः उन में ज्ञान के अतिशय की सम्पत्ति का भी सम्भव हो सकता है। इस बात को कुमारिल ने भी कहा है, कि दिव्य देह ब्रह्मा, विष्णु, और महेश्वर, ये सर्वज्ञ भले होवे, परन्तु मनुष्य को सर्वज्ञता क्यों कर हो सकती है ? उत्तर:-जो राग द्वेष में मग्न हैं, और निग्रह अनुग्रह में ग्रस्त हैं, काम लेवन में तत्पर हैं, ऐसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, क्योंकर सर्वज्ञ हो सकते हैं ? तथा प्रत्यक्ष प्रमाण भी सर्वज्ञता का साधक नहीं है, कारण कि इन्द्रिये वर्तमान वस्तु ही को ग्रहण करती हैं । अरु अनुमान से भी सर्वज्ञ सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि अनुमान प्रत्यक्ष पूर्वक ही प्रवृत्त होता है। एवं प्रागम भी सर्वज्ञ की सिद्धि करने वाले नहीं । क्योंकि सर्व श्रागम विवादास्पद है । उपमान
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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