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________________ चतुर्थ परिच्छेद २७५ करते हैं, बांह (वाहु) के मूल में तूंची रखते हैं, प्राय वनों में रहते हैं, प्रातिथ्य कर्म में तत्पर रहते हैं, कंद, मूल, फल, खाते हैं, कितनेक स्त्री रखते हैं, और कितनेक नहीं रखते हैं, जो स्त्री नहीं रखते हैं, सो तिन में उत्तम माने जाते हैं, पंचाग्नि तापते हैं, हाथ में और जटा में प्राणलिंग रखते है, जब उत्तम संयम अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं, तब नग्न हो कर भ्रमण करते हैं, सवेरे दंत धावन और पदादि को पवित्र करके शिव का ध्यान करते हुए भस्म से तीन तीन वार अङ्ग को स्पर्श करते हैं । उनका भक्त हाथ जोड़ कर उनको वन्दना करते समय “ॐ नमः शिवाय” कहता है, अरु गुरु भक्त के तांई “शिवाय नमः" ऐसे कहता है। उनका कहना ऐसा भी है, कि जो पुरुष शैवी दीक्षा को बारां वर्ष तक पाल करके छोड़ भी देवे, जेकर पीछे वो दास दासी भी होवे, तो भी निर्वाण पद को प्राप्त होता है । अरु शंकर इन का देव है, जो कि सर्वज्ञ और सृष्टि के संहार का कर्त्ता है । इस शंकर के अठारह अवतार मानते हैं, तिन के नाम लिखते है - १ नकुली, २. शोष्यकौशिक, ३ गार्ग्य, ४. मैत्र्य, ५. प्रकौरुप, ६. ईशान, ७. पारगार्ग्य, ८. कपिलांड, ९. मनु * शैवीं दीक्षा द्वादशाब्दी, सेवित्वा योऽपि मुञ्चति । दासी दासोऽपि भवति सोऽपि निर्वाणमृच्छति ॥ [ षट्० स०, श्लो० १२ की बृहद्वृत्ति मे उद्धत ]
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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