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________________ . चतुर्थ परिच्छेद ર૭રૂ सविकल्पक ज्ञान जो है, सो संज्ञास्कंध है। [४] पुण्य और अपुण्यादिक जो धर्म समुदाय है, सो संस्कारस्कंध है । इस . ही संस्कार के प्रवोध से पूर्व अनुभूत विषय का स्मरणादिक - होता है। [२] पृथ्वी, धातु आदिक तथा. रूपादिक, यह.. रूपस्कंध है । इन पांचों के अतिरिक्त पात्मादि और कोई पदार्थ नहीं है । अरु यह जो पांचों स्कंध हैं, वे, सर्व एक क्षगामात्र रहते हैं । यह दुःख तत्त्व के पांच भेद कहे। अव समुदाय तत्व का स्वरूप लिखते हैं:. . समुदेति यतो लोके, रागादीनां गेणोऽखिलः । • आत्मात्मीयभावाख्यः समुदय से उदाहतः ॥ [पड्० स०, श्लो०-६ की बृहवृत्ति ] अर्थ:-जिस से आत्मा और आत्मीय तथा पर-और परकीय सम्बन्ध के द्वारा, रागद्वेपादि दोपों का समस्त गणसमूह उत्पन्न होता है, उस को समुदयं या समुदाय कहते हैं। इस को तत्पर्य यह है, कि म हूँ; यह मेरा है, इस सम्बन्ध से, तथा यह दूसरा है, दूसरे की वस्तु है, इस- सम्बन्ध सेजिस करके रागद्वेषादि-दोषों की उत्पत्ति हो,, उसका नाम समुदाय है। ये दोनों तत्त्व-दुःख और समुदाय संसार की प्रवृत्ति के हेतु हैं। इन दोनों के विपक्षीभूत मार्ग और निरोध तत्त्व हैं । अब उनका स्वरूप लिखते हैं । "परमनिकृष्टः कालः क्षणम"
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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