SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ परिच्छेद २६३ तो दूर रही, परन्तु प्रथम हम तुमको दो बातें पूछते हैं-ज्ञान का जो तुम निषेध करते हो, सो ज्ञान से करते हो ? वा अज्ञान से करते हो ? जे कर कहोगे कि ज्ञान से करते हैं, तो फिर कैसे कहते हो कि अज्ञान ही श्रेय है ? इस कहने से तो ज्ञान हो श्रेय हुआ, क्योंकि ज्ञान के विना अज्ञान को कोई स्थापन करने में समर्थ नहीं हैं । जेकर उक्त कहने को मानोगे, तो तुमारो प्रतिज्ञा के व्याघात का प्रसंग होगा। जेकर कहोगे कि प्रज्ञान से निषेध करते हैं । सो भी अयुक्त है, क्योंकि अज्ञान में ज्ञान का निषेध करने की सामर्थ्य नहीं है । जब प्रज्ञान निषेध करने में समर्थ न हुआ, तब तो सिद्ध है कि नान ही श्रेय है । अरु जो तुमने कहा था, कि जब ज्ञान होगा, तब परस्पर में होने वाले विवाद के योग से चित्त कालुप्यादि भाव को प्राप्त होगा। सो यह भी विना विचारे कहना है । हम परमार्थ से ज्ञानी उस को कहते हैं, कि जिस को प्रात्मा विवेक करके पवित्र होवे, अरु जो ज्ञान का गर्व न करे । तथा जो थोड़ा सा ज्ञानी हो कर, कंठ लग मद्य पी कर जैसे उन्मत्त बोलता है तैसे बोले, अरु सकल जगत को तृण को तरे तुच्छ माने, सो परमार्थ से ज्ञानवान् नहीं किन्तु अज्ञानी ही है । क्योंकि उस को ज्ञान का फल नहीं हुआ है । ज्ञान का फल तो रागद्वेषादि दूषणों का त्याग करना है । जव कि यह नहीं हुआ, तव तो परमार्थ से ज्ञान ही नहीं। यथा--
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy