SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४ जैनतत्त्वादर्श सिद्धान्तीः-यह भी तुमारा कहना असमीचीन है। क्योंकि सहकारी जो हैं, सो भी नियति करके ही प्राप्त होते हैं । अरु नियति जो है, सो प्रथम क्षण में भी तिस को करने के स्वभाव वाली है । जेकर द्वितीयादि क्षण में दूसरे स्वभाववाली नियति मानोगे, तब तो नित्यपने की हानि हो जायगी। तिस वास्ते प्रथम क्षण में सर्व सहकारियों के संभव होने से प्रथम क्षण में ही सर्व कार्य करने का प्रसंग हो जायगा। तथा एक और भी बात है, कि सहकारियों के होने से कार्य हुआ, अरु सहकारियों के न होने से कार्य न हुआ। तब तो सहकारियों ही को, अन्वय व्यतिरेक देखने से कारण कहना चाहिए । परन्तु नियति को कारण नहीं मानना चाहिये, क्योंकि नियति में व्यतिरेक का असंभव है। उक्तंचः* हेतुनान्वयपूर्वेण, व्यतिरेकेण सिद्धयति । नित्यस्याव्यतिरेकस्य, कुतो हेतुत्वसंभवः ।। अथ जेकर इन पूर्वोक्त दूषणों के भय से अनित्य पक्ष मानोगे, तब तिस नियति के प्रतिक्षण अन्य अन्य रूप होने से निर्यातयां बहुत हो जायेंगी, और जो तुम ने नियति एक ___ * कार्य के साथ जिस का अन्वय और व्यतिरेक दोनो ही हों, वही हेतु कारण हो सकता है, और जो नित्य. तथा अव्यतिरेकी हो, वह कारण नहीं बन सकता। MARA
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy