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________________ चतुर्थ 'परिच्छेद' ર૪ अन्य दूसरे काल के योग से है । सिद्धान्तीः - जेकर दूसरें काल के योग से प्रथम काल का पूर्वापर व्यवहार है, तब तो दूसरे कालका पूर्वापर व्यवहार तीसरे काल के योग से होगा, ऐसे ही चलते जाएं, तो अनवस्था दूषण का प्रसंग हो जायगा । · प्रतिवादी :- यह दूषण हम' को नहीं लगता है, क्योंकि हम तो तिस काल ही के स्वयमेवं पूर्वापर विभाग मानते हैं, किसी कालादि के योग से नहीं मानतें हैं । तथा चोक्तम्: पूर्वकालादियोगी यः पूर्वादिव्यपदेशभाक् । पूर्वापरत्वं तस्यापि स्वरूपादेव नान्यतः ॥ अर्थः-- जो पूर्वापर काल के योगी भरत रामादि हैं, सो भरत रामादि पूर्वापर व्यपदेश वालें हैं, अरु कालका जो पूर्वापर विभाग है, सो स्वत ही है, परन्तु अन्यकालादि के योग से नहीं है । सिद्धान्ती:- हे कालवादी ! यह तुमारा कहना ऐसा है, कि जैसा कंठ लग मदिरा पीने वाले का प्रलाप है । क्योंकि तुमने प्रथम पक्ष में काल को एकांत रूप से एक, नित्य, व्यापी माना है, तो फिर कैसे तिस काल का पूर्वापर व्यवहार होवे ? प्रतिवादी : - सहचारी के संग से एक वस्तु का भी पूर्वापर कल्पनामात्र व्यवहार हो सकता है । जैसे सहचारी भरतादिकों का पूर्वापर व्यवहार है, तैसे ही भरतादि सहचारियों के संग से काल का भी कल्पनामात्र पूर्वापर व्यपदेश होता •
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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