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________________ રદ્દ जैनतत्त्वादर्श को जब युगपत् एक शब्द करके कहना होवे, तदा तिसका वाचक कोई भी शब्द नहीं है, इस वास्ते अवाच्यत्वा यह चारों विकल्प सकला देश रूप हैं, क्योंकि सकल वस्तु को विषय करते हैं । ५. सदवाच्यत्त्व-यदा एक भाग में सत्, दूसरे भाग में अवाच्य, ऐसी युगपत् विवक्षा करें, तदा सदवाच्यत्त्व, ६.. असदवाच्यत्व-यदा एक भाग में असत्, दूसरे भाग में अवाच्य,तदा असदवाच्यत्व, ७. सदसदवाच्यत्व-यदा एक भाग में सत, दूसरे भाग में असत्, तीसरे भाग में अवाच्य ऐसी युगपत् कल्पना करें, तदा सदसवाच्यत्व । इन सातों विकल्पों से अन्य विकल्प कोई भी नहीं है । जेकर कोई कर भी लेवे, तो इन सातों ही में अन्तर्भूत हो जायेंगे। परन्तु सातों से अधिक विकल्प कदापि न होवेंगे। यह जो सात विकल्प कहे हैं, इन सातों को नव गुणा करें, तव त्रेसठ होते हैं । अरु उत्पत्ति के चार विकल्प आदि के ही होते हैं । सत्वादि चार विकल्प त्रेसठ में प्रक्षेप करें (मिलावें), तव सतसठ मत अज्ञानवादी के होते हैं । अब इन सातों विकल्पों का अर्थ लिखते हैं । कौन जानता है कि जीव सत् है ? कोई भी नहीं जानता है । क्योंकि इसका ग्रहण करने वाला प्रमाण कोई भी नहीं है । जेकर कोई जान भी लेवेगा कि जीव सत् है, तो कौन से पुरुषार्थ की सिद्धि हो गई । क्योंकि जब ज्ञान हो जावेगा तब अभिनि वेश, अभिमान, मलिन चित्त लोकों से विवाद, झगड़ा,
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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