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________________ २४४. जैनतत्त्वादर्श 1 हैं; सो महावीर सर्वज्ञ ही के कहे हुए हैं। तो भी श्रीमहावीर जी के कहे हुए शास्त्र का यही अभिप्राय अर्थ है, और अर्थ नहीं, यह क्योंकर जाना जाय ? क्योंकि शब्दों के अनेक अर्थ हैं, सो इस जगत् में प्रगट सुनने में आते हैं । क्या जाने इन ही अक्षरों करके श्री महावीर स्वामी जी ने कोई अन्य ही अर्थ कहा होवे, परन्तु तुमारी समझ में उन ही अक्षरों करके कछु और अर्थ भासन होता होवे। फिर निश्चय क्योंकर होवे, कि इन अक्षरों का यही अर्थ भगवान् ने कहा है । जेकर तुम ने यह मान रक्खा होवे, कि भगवान् के समय में गौतमादिक मुनि थे, उन्होंने भगवान् के मुखारविन्द से साक्षात् जो अर्थ सुना था, सोई अर्थ आज तांई परंपरा से चला आता है । इस वास्ते प्राचारांगादिक शास्त्रों का यही अर्थ है, अन्य नहीं । यह भी तुमारा कहना प्रयुक्त है, क्योंकि गौतमादिक भी छद्मस्थ थे, अरु छद्मस्थ को दूसरे की चित्तवृत्ति का ज्ञान नहीं होता है । क्योंकि दूसरे की चित्तवृत्ति तो अतींद्रिय ज्ञान का विषय है । छद्मस्थ तो इन्द्रिय द्वारा जान सकता है । इन्द्रियज्ञानी सर्वज्ञ के अभिप्राय को क्योंकर जान सके, कि सर्वज्ञ का यही अभिप्राय है, इस अभिप्राय से सर्वज्ञ ने यह शब्द कहा है । इस वास्ते भगवान् का अभिप्राय तो गौतमादिक नहीं जान सकते हैं । केवल जो वर्णावली भगवान् कहते भये, सोई वर्णावली भगवान के अनुयायी मौतमादिक उच्चारण करते आये ।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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