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________________ (भ) होंगे तो सुनने वालों के हृदय में भक्ति रस की बिजली दौड़ जाती होगी और उन की आंखों से प्रेम के आंसुओं की धारा बह निकलती होगी। महाराज जी की साहित्यिक भाषा की कुछ विशेषताएं । १. वर्णविन्यास की विषमता। एक ही शब्द भिन्न २ प्रकार से लिखा गया है । जैसे सडसठ, सदसठ (जैन० पृ० १२४) विश्वा, वीश्वा = बिसवा (जैन० पृ० ३१९) बहुत, बहूत (जैन० पृ० ३२१) कीड़ीयों (पृ० ११५), बिमारीयां (पृ० ३२२) इत्यादि । २. अनुस्वार का अनावश्यक प्रयोग । जैसे-कहनां (पृ० १२३)। इसी प्रकार से, कों आदि में ३ तान्त-रूपों में 'यश्रुति' । जैसे-सड्या (पृ० ३२१), वह्या (सुशीलकृत 'विजयानन्द सूरि' में पत्र का फोटो, पंक्ति ६) इत्यादि। ४.कारकाव्यय । कू, कुं, कों, सू, से, सो, इत्यादि । ५, मूर्धन्य 'ण' का प्रयोग । यह मारवाड़ी या पंजाबी के प्रभाव का फल है । जैसे-करणे (पृ० २१७), हरणे, करणी, अपणा (पृ० ३१६)।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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