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________________ ‘जैनतत्त्वादर्श अर्थः बकुश, शवल, कर्वर [ए तीनों एकार्थ हैं अर्थात एक ही वस्तु को कहते हैं ] है चारित्र जिस वकुश निग्रंथ का का [ अतिचाररूपपंकयुक्त होने से ] सो स्वरूप बकुशनामा निग्रंथ है। इस भारत वर्ष में इस काल में बकुश और कुशील ए दोनों निग्रंथ हैं, शेष के तीन तो व्यवच्छेद हो गये हैं। तथा चोक्तं परम मुनिभिः*ब उस कुसीला दो पुण, जा तित्थं ताव होहिंति । [पं०नि०, गा० ३ की अवचूरि] अर्थात् बकुश,कुशील ए दोनों निग्रंथ जहां तक तीर्थ रहेगा तहां तक रहेंगे। इन में जो बकुश निग्रंथ है, तिसके दो भेद हैं । १. जो वस्त्र पात्रादि उपकरण की विभूषा करे सो उपकरण वकुरा, और २. जो हाथ, पग, नख, मुखादिक देह के अवयवों की विभूषा करे, सो शरीरबकुश, ए दोनों भेदों के भी पांच भेद हैं:उवगरणसरीरेसु, स दुहा दुविहोऽवि होइ पंचविहो । आमोगप्रणाभोगे, अस्सवुडसंवुडे सुहुमे ॥ [पं०नि०, गा० १३] * इस गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है:निग्गंथसिणायाण पुलायसहियाण तिण्हवुच्छेओ ।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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