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________________ રર૦ जैनतत्त्वादर्श गोष को ग्वाल कहते थे, तो क्या अब थोड़ी गौओं वाले को ग्वाल न कहना चाहिये ? ११. पूर्वकाल में सहस्त्रमल्ल योद्धा थे, अब नहीं हैं; तो क्या अब किसी को योद्धा न कहना चाहिये ? १२. पूर्व में पाण्मासिक तप का प्रायश्चित्त था, तो क्या उस के बदले अब निवी प्रमुख प्रायश्चित्त न लेना चाहिये ? १३. जैसे प्राचीनकाल की बावड़ियों में वस्त्र आदिक धोये जाते थे, इसी प्रकार वर्तमान समय की बावड़ियों से भी वस्त्रों की शुद्धि हो सकती है। इसी तरें,यदि आज कल के साधुओं में पूर्वकाल के मुनियों जैसी वृत्ति नहीं, तो क्या उन को प्राचार्य वा साधु न कहना चाहिये ? किन्तु ज़रूर ही साधु कहना अरु मानना चाहिये। तथा जीवानुशासन सूत्र की वृत्ति में भी लिखा है, कि पांचमें काल में साधु ऐसा भी होवे, तो भी संयमी कहना चाहिये, तथा निशीथ भाष्य में भी लिखा है:--- जा संजमया जीवेसु ताव मूलगुण उत्तरगुणा य । इत्तरियच्छेय संजम, नियंठ बउसापडिसेवी ॥ इस गाथा की चूर्णि की भाषा लिखते हैं । छे काया के जीवों विषे जब ताई दया के परिणाम हैं, तब तांई बकुश निग्रंथ और प्रतिसेवना निग्रंथ रहेंगे। इस वास्ते प्रवचनशून्य और चरित्ररहित पंचम काल कदापि न होवेगा। तथा मूलोत्तरगुणों में दूषण लगने से तत्काल चारित्र नष्ट
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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