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________________ तृतीय परिच्छेद २१७ है, वैसी वृत्ति वाला कोई भी जैन का साधु देखने में नहीं प्राता है, तो फिर जैनमत के साधुओं को इस काल में गुरु क्योंकर मानना चाहिये ? उत्तर:-तुम ने जैनमत के शास्त्र न पढ़े होंगे, अरु किसी गीतार्थ गुरु की सगत भी नहीं पंचम काल के साधुओं का स्वरूप ____ करी होगी, क्योंकि जेकर जैनमत के चरणकरणानुयोग के शास्त्र पढ़े होते, अथवा किसी गीतार्थ गुरु के मुखारविद से उन के वचनरूप अमृत का पान करा होता, तो पूर्वोक्त संशयरूप रोग की उत्पत्ति कदापि न होती। क्योंकि जैनमत में छे प्रकार के निर्ग्रथ कहे हैं । इस काल में जो जैन के साधु हैं, वे पूर्वोक्त छे प्रकार में से दो प्रकार के हैं । क्योंकि श्रीभगवती सूत्र के पच्चीसवें शतक के छठे उद्देश में लिखा है, कि पंचम काल में दो तरे के निग्रंथ होंगे, उनों से ही तीर्थ चलेगा। कपायकुशील निग्रंथ तो किसी में परिणामापेक्षा होगा, मुख्य तो दो ही रहेंगे । अरु जो जैन शास्त्रों में गुरु की वृत्ति लिखी है, सो प्रायः उत्सर्ग मार्ग की अपेक्षा से लिखी है। और इस काल में तो प्राय अपवाद मार्ग की ही प्रवृत्ति है। तव उत्सर्गवृत्ति वाले मुनि इस काल में क्योंकर हो सकते हैं ? कदाचित नहीं हो सकते हैं । क्योंकि न तो वज्रऋपभनाराच संहनन है, न वैसा मनोवल है, न जीवों की वैसी श्रद्धा है, न वैसा देश काल, और न वैसा धैर्य है,
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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