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________________ ૨૦૦ जैनतत्त्वादर्श महा दुःखों का देने वाला पापकर्म उत्पन्न करते हैं, तथा आर्य देश में भी क्षत्रिय, ब्राह्मण प्रमुख जो हैं, वे भी अज्ञानता, 'दरिद्रता,कष्ट,दौर्भाग्य, रोगादिक करके पीडित हैं । दूसरों का काम करना, मानभङ्ग, अपमान आदि अनेक दुःख निरंतर भोग रहे हैं । तथा गर्भवास का दुख इस जीव को सब से अधिक भयंकर है। किसी पुरुष के एक २ रोम में, एक ही समय एक २ सूई मारी जावे, उस से जो कष्ट होता है, उस से पाठ गुना कष्ट माता के गर्भमें स्थित जीव को होता है। इस दुःखसे अनन्त गुना दुःख जन्म समय में होता है । तथा बाल अवस्था में मूत्र, पुरीष, धूलि में लोटना, अज्ञानता, जगत् की निंदा, यौवन में धन अर्जन करना, इष्ट वस्तु का वियोग, अनिष्ट वस्तु का संयोग, अरु वृद्ध अवस्था में शरीर का कांपना, नेत्रों का बलहीन हो जाना, श्वास, खांसी आदि रोगों करके महा दुःखी होना इत्यादिक ऐसी कोई भी दशा नहीं, कि जिस में प्राणी सुख पावे। यह मनुष्य गति कही। तथा सम्यग् दर्शनादिक के पालने से जो जीव देवता होता है, सो भी शोक, विषाद, मत्सर, भय, थोड़ी ऋद्धि, ईर्ष्या, काम मद आदि करके पीडित हो कर,अपना प्रायु दीन मन होकर पूर्ण करता है । यह देव गति कही। इस तरे से मोक्षाभिलाषी 'पुरुष तीसरी संसार भावना भावे । • चौथो एकत्व भावना कहते हैं:-अकेला ही जीव उत्पन्न ' होता है, अरु अकेला ही मृत होता है, अकेला ही कर्म करता
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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