SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय परिच्छेद १९७ एकत्व भावना, ५ अन्यत्व भावना, ६. शुचित्व भावना, ७, आश्रवभावना, ८. संवरभावना, ६. निर्जराभावना, बारह भावनाएं १०. लोकस्वभाव भावना, ११. बोधिदुर्लभ भावना, १२ धर्मभावना है । यह बारां भावना जिस तरे से रात दिनमें भावने योग्य हैं, तैसे अभ्यास करना । अत्र इन वारां भावनाओं का किंचित् स्वरूप लिखते हैं । पहली - मनित्यभावना कहते हैं:--जिन का वज्र की तरें सार अरु कठिन शरीर था, वो भी अनित्य रूप राक्षस ने भक्षण कर लिये, तो फिर केले के गर्भ की तरें निःसार जीवों के जो शरीर हैं, सो इस अनित्य रूप राक्षस से कैसे बचेंगे ? तथा लोग बिल्ली को तरे आनन्दित हो कर विषयसुख का दूध की तरें स्वाद लेते हैं, परन्तु लाठी की मार को नहीं देखते हैं, अर्थात् विषय सुख भोग कर आनन्द तो मानते हैं, परन्तु जन्मांतर में प्राप्त होने वाले नरकपतन रूप संकट से नहीं डरते हैं । तथा जीवों का शरीर तो पानी के बुलबुले की तरे है, अरु जीवन जो है, सो ध्वजा की तरे चंचल है, तथा स्त्री, परिवार, आंख के झमकने को तरें चंचल हैं। अरु यौवन जो है, सो हाथी के कान की तरें चंचल है, तथा स्वामीपना जो है, सो स्वप्न श्रेणी की तरें है, अरु लक्ष्मी जो है सो चपलाबिजली की तरें चंचल है । इसी तरें सर्व पदार्थों की अनित्यता को विचारते हुए यदि प्यारा पुत्रादिक भी मर जावे, तो भी अपने मन में सोच न करे । तथा जो मूर्ख जीव सर्व
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy