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________________ तृतीय परिच्छेद पडिलेहण गुत्तीओ अभिग्गहा चैव करणंतु ॥ [ श्रो० नि० भा०, गा० ३, प्रव० सा०, गा० ५६३ ] अर्थः- पिडविशुद्धि - आहार, उपाश्रय, ---- वस्त्र, पात्र, ए चार वस्तु को साधु ४२ दोष टाल कर ग्रहण करे, तिस का नाम पिडविशुद्धि है । बैतालीस दृषण का जो पूरा स्वरूप देखना होवे, तो भद्रबाहुस्वामिकृत पिडनिर्युक्ति की मलयगिरिसूरिकृत टीका सात हजार श्लोक प्रमाण है, सो देखनी, तथा जिनवल्लभसूरिकृत पिडविशुद्धि ग्रन्थ और उस की जिनपतिसूरिकृत टीका से जान लेना, तथा श्रीनेमिचन्द्रसूरिकृत प्रवचनसारोद्धार, तथा उस की श्री सिद्धसेन सूरिकृत दीका से जान लेना, तथा श्रीहेमचन्द्र सूरिकृत योग शास्त्र से जान लेना । १-६५ अव समिई-समिति पांच प्रकार की है, उसका स्वरूप लिखते हैं । प्रथम ईर्ष्या समिति, सो चलने पाच समिति को इर्या कहते हैं, अरु सम्यक् - आगम के अनुसार जो प्रवृत्ति चेष्टा करनी, सो समिति कहिये । त्रस स्थावर जीवों को अभयदान के देने वाला जो मुनि है, तिस मुनि को जे कर किसी आवश्यक , प्रयोजन के वास्ते चलना पड़े, तो किस रीति से चलना ? प्रथम तो प्रसिद्ध रस्ते से चलना । जो रस्ता सूर्य की किरणों
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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