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________________ तृतीय परिच्छेद १८७ लम्बी आयु, श्रद्धा, संवेग, उद्यम, वल, ए सर्व हीन हो गये है, अरु विद्या कंठ रहती नहीं । ११. प्रेक्षासंयमबीज, हरी घास, जीव जन्तु आदि से रहित स्थान को नेत्र से देख कर सोना, बैठना, चलना आदि क्रिया करना । अथवा संयम से चलायमान होने वाले साधु को हित बुद्धि करके उपदेश करना । १२. उपेक्षासंयम- पाप के व्यापार में प्रवृत्त हुए गृहस्थ को ऐसे उपदेश न करना कि यह काम तुम ऐसे करो; तथा पार्श्वस्थादि को [ जो साधु की समाचारी से भ्रष्ट हो गये हैं, अरु जान बूझ कर अनुचित काम कर रहे हैं तथा किसी के उपदेश को मानने वाले नहीं ] उपदेश करने में उदासीनता रखना । १३ प्रमार्जना संयम - देखे हुये स्थान से भी यदि वस्त्र पात्रादिक लेने वा रखने पड़ें, तब भी प्रथम रजोहरणादिक से प्रमार्जन करके पीछे से लेना, रखना, सोना, बैठना करे । १४. परिष्ठापना संयम - भात पानी - खाने पीने की वस्तु, जिस में जीव पड़ गये हों तथा वस्त्र पात्र आदि, जो सर्वथा काम देने योग्य नहीं रहे, उनको जीवों से रहित शुद्ध भूमि में शास्त्रोक विधि के अनुसार स्थापन करना । १५. मनः संयम -- मन में द्रोह, ईर्ष्या तथा अभिमान न करना, अरु धर्मध्यानादि में मन को प्रवृत्त करना । १६ वचन संयम - हिसाकारी कठोर वचन को त्यागना, अरु शुभ वचन में प्रवृत्त होना । १७. काया संयम - गमनागमन करने में अरु अवश्य करने योग्य कामों
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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