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________________ तृतीय परिच्छेद १५५ संजम चियागऽकिंचण, बोधव्ये बंभचेरे य ।। अब संयम के सतरां भेद लिखते हैं:पंचासवा विरमणं, पंचिंद्रियनिग्गहो कसायजओ। दण्डत्तयस्स विरई, सत्तरसहा संजमो होइ । पुढवि दग अगणि मारुय,वणस्सइ वि ति चउ पणिदि अज्जीवा, पेहुप्पेहपमज्जण, परिठवण मणो वई काए । [प्रव० सा०, गा० ५५५,५५६] प्रार्थ:-जिस करके कर्मों का उपार्जन किया जावे सो श्राश्रव-हिसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और सतरह प्रकार परिग्रह ये पांचों कर्म वन्ध के हेतु हैं । इन का मंयम का त्याग करना पंचाश्रवविरमण है। स्पर्शन, रसन, प्राण, चतु और श्रोत्र, इन पांच इन्द्रियों के स्पर्श आदि जो विषय हैं, उन में आसक्त न होना-लम्पटता न करनी पंचेन्द्रियनिग्रह है । तथा क्रोध, मान, माया अरु लोभ, इन चारों को जीतना, इन चारों के उदय को निष्फल करना, अरु जो उदय में न आये तिस को उत्पन्न नहीं होने देना कषायजय है। प्रात्मा की चारित्र लक्ष्मी का अपहरण करने वाले दुष्टखोटे मन,वचन और काया का नाम दण्ड है। सो इन तीनों * दण्डयत-चारित्रंश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डा दुष्प्रयुक्ता मनोवाक्काया- इत्यादि। [प्र. सा• वृत्तिः ]
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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