SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ‘१७४ जैनतत्त्वादर्श - 'पदार्थों पर ममत्व है, उस के पास अपने शरीर के विना दूसरी कोई भी वस्तु नहीं, तो भी तिस को निष्परिग्रही-परिग्रहरहित नहीं कह सकते । किंतु जिस की मूछा-ममत्व सर्व वस्तु से हट जावे, उसी को निष्परिग्रह व्रत वाला कह सकते हैं । क्योंकि जिस के पास कोई वस्तु नहीं, अरु अनहोई वस्तु की जिस को चाहना लग रही है वो त्यागी नहीं। जेकर ज्ञान द्वारा मूछ के त्यागे बिना ही त्यागी हो जावे,, तब तो कुत्ते अरु गधे को भी त्यागी होना चाहिये। अरु जो पुरुष ममत्व रहित है, सो निष्परिग्रही है, चाहे उस के पास- धर्म साधन के कितनेक उपकरण भी हैं, तो भी मूर्छा के न होने से वो परिग्रह वाला नहीं। । अव प्रत्येक महाव्रत की जो पांच पांच भावना हैं, तिन का स्वरूप लिखते हैं: भावनाभि वितानि, पंचभिः पंचभिः क्रमात् । महाव्रतानि नो कस्य, साधयंत्यव्ययं पदम् ।। - [यो शाएं, प्र० १ श्लो० २५] , अर्थः यह जो पांच,महाव्रतों की पच्चीस भावना हैं, सो . . .. यदि कोई इन_भावना करके अपने अपने पच्चीस भावनाएं ...- महावत को रंजित-वासित करे, एतावता - पांचा पाच भावना पूर्वक प्रखंड महाव्रत, पाले, तो ऐसा
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy