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________________ -१७२ जैनतत्वादर्श को स्वामी के बिना पूछे ले लेना, सो स्वामी अदत्त है । २ कोई पुरुष अपने भेड़, बकरी, गौ प्रमुख जीव को मूल्य लेकर किसी हिसक प्राणी के पास बेच देवे अथवा बिना मूल्य 'ही दे देवे सो जीव दत्त है । क्योंकि यद्यपि लेने वाले ने तो बदले की वस्तु देकर ही उस जीव को लिया है, परन्तु जीवने -अपनी इच्छा से अपना शरीर नहीं दिया, इस वास्ते यह जीव प्रदत्त है । ३. जो जो वस्तु - थाधाकर्मादिक. आहार, चित्त-जीव सहित भी है, अरु दीनी भी उस वस्तु के 'स्वामी ने है, परन्तु तीर्थंकर भगवंत ने निषेध करी है, फिर जो उस वस्तु को ले लेना, सो तीर्थकर प्रदत्त । ४. वस्त्र श्राहारादिक वस्तु निर्दोष है, अरु उस वस्तु के स्वामी ने वो दीनी है, अरु तीर्थकर भगवंत ने निषेध भी नहीं करी है, परन्तु गुरु की आज्ञा के बिना उस वस्तु को जो ले लेना, सो गुरु प्रदत्त | इस महाव्रत में ए चार प्रकार का अदत्त न लेना । जितने व्रत नियम हैं, वे सर्व रक्षा वास्ते बाड़ के समान हैं। यह पूर्वोक्त तीसरे व्रत का जो पालन है, सो अहिसात ही की रक्षा करना है । अरु जो तीसरा महाव्रत न पाले तो अहिंसा व्रत को दुषण लगे है | यही बात कहते हैं । "वाह्याः प्राणा नृणामर्थो " - यह अर्थ-लक्ष्मी जो है सो मनुष्यों के वाहिरले प्राण हैं । जब कोई किसी की चोरी करता है तो निश्चय कर के वो उस के प्राणों ही का नाश करता है । इसी हेतु से चोरी करना महा श्रहिसाव्रत की -
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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