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________________ १७० जैनतत्त्वादर्श हैं । यह पांच महाव्रत अरु पच्चीस भावना, इन का पालना मोक्ष के वास्ते है: अब इन पांचों महाव्रतों में से प्रथम महाव्रत का स्वरूप लिखते हैं: न यत् प्रमादयोगेन, जीवितव्यपरोपणम् । सानां स्थावराणां च तदहिंसाव्रतं मतम् || [ यो० शा०, प्र० १ श्लो० २० ] अर्थ:- त्रस - द्वोंद्रियादिक जीव, अरु स्थावर - १. पृथ्वीकाया २० अप्काया, ३. अग्निकाया, ४. वायुकाया, ५. वनस्पतिकाया, इन सर्व पूर्वोक्त जीवों को प्रमाद वश हो कर मारे नहीं अर्थात् प्रमादू - राग, द्वेष, असावधानपना, अज्ञान, मन वचन काया का चंचलपना, धर्म के विषे अनादर, इत्यादि के वश हो कर जो जीवों के प्राणों का प्रतिपात - विनाश करना, उस के त्याग का नाम अहिसा व्रत है । अब दूसरे महाव्रत का स्वरूप लिखते हैं.प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं, सूनृतत्रतमुच्यते । तत्तथ्यमपि नो तथ्यममियं चा हितं च यत् ॥ [ यो० शा०, प्र० १ श्लो० २१] अर्थ:- जिस वचन के सुनने से दूसरा जीव हर्ष पावे, तिस वचन को प्रिय वचन कहिये, तथा जो वचन जीवों को
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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