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________________ १५८ जैनतत्त्वादर्श नहीं इस हेतु से ईश्वर जगत्कर्त्ता अवश्य होना चाहिये । सिद्धान्तीः जगत्कर्त्ता ईश्वर का खंडन तो हम प्रथम ही कर चुके हैं, फिर आप जगत् का कर्त्ता क्योंकर मानते हैं ? अरु जो तुम ने लिखा है कि जगत् के पदार्थों में न्यारे न्यारे स्वभाव दीख पड़ते हैं: इससे ईश्वर की सिद्धि होती है। परन्तु इस कहने से ईश्वर जगत् का कर्त्ता सिद्ध नहीं होता, क्योंकि सर्व पदार्थो में अनंत शक्तियां हैं । सो अपनी अपनी शक्तियों से सर्व पदार्थ अपने अपने कार्य को करते हैं । इन के मिलने में एक तो काल, दूसरा पदार्थ का स्वभाव, तीसरी नियति, चौथा जीवों का कर्म, पांचवां उन का पुरुषार्थ - उद्यम, ये पांच निमित्त हैं । इन पूर्वोक्त पांचों निमित्तों के बिना और कोई भी निमित्त नहीं है । इन पांचों का स्वरूप आगे चल कर लिखेंगे । तथा प्रत्यक्ष में भी इन पांचों के निमित्त से ही सब कुछ उत्पन्न होता है, जैसे बीजांकुर । जब बीज बोया जाता है, तब काल - समय भी अनुकूल होना चाहिये, अरु बीज, जल, पृथिवी, इत्यादिकों का स्वभाव भी अवश्य होना चाहिये । तथा नियति [ जो जो पदार्थों का स्वभाव है, तिन पदार्थों का तथा तथा जो परिणमन होता है, तिस का नाम नियति है ] कारण है । तथा अष्टविध कर्म भी कारण हैं, तथा पुरुषार्थ-जीवों का उद्यम भी कारण है। ए पांचों वस्तु अनादि हैं, किसी ने भी इन को रचा नहीं
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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